रविवार, 16 दिसंबर 2012

दोस्त बनना ....व्यापारी नहीं !!!!




आप जिसे प्रेम संबंध कहते है ,वह क्या है ?वह बिना शर्त जुडना है ...अगर आप में जुड़ने का भाव नहीं है ,तो आप हमेशा किसी भी व्यक्ति के साथ एक बढ़िया सौदा पटाने की कोशिश करेंगे ....तब आप को सिर्फ मूर्ख व्यक्तियों से ही मिलना चाहिए ,जो आप के झांसे में आ जांए ...बुद्धिमान को तुम एक बार झूठ का शीशा दिखा कर ऐसा कर तो लोगे ....पर उसके बाद ...???

जब आप किसी को स्वयं अपने शुद्ध भाव के साथ अपनाते हो ...तभी ब
ात बनती है ...कभी भी एक तरफ़ा नहीं ...वर्ना इक दिन भेद खुलते ही टूट जायेगी ....और तब ....बहुत देर हो चुकी होगी ,

दोस्ती और प्रेम में भाव त्याग का ही रहता है ....जो नहीं समझ पाते ...वो व्यापारी हैं ...प्रेम और दोस्ती के नाम के व्यापारी !!! और व्यापारी सदा अपना हित सधता है .....!!!

दोस्त बनना ....व्यापारी नहीं !!!!
 

चला गया वो.......

चला गया वो........
*************
चला गया वो
कह कर फिर मिलूँगा ,
चला गया वो 

लगता है सदीओं से खड़ी हूँ वहीँ
जहाँ से गया है वो
मैंने कहा जिन्दगी प्यार है
तुमने सुधारा -नहीं प्यार जिन्दगी है
फिर जिन्दगी क्या है -पूछा मैंने
उत्तर में-तुम देखने लगे
देर रात तक यूँ ही कुछ कुछ बतियाते
लगता है करेंगे हम नया कुछ शुरू
पुरानी यादों फिर फिर दोहराते
डूबते सूरज के साथ
क्यूँ खींच रहे हो मेरी तस्वीर
तुम मुस्कुराये और क्लिक कर दिया
कहते हुए कि अच्छी आयेगी तस्वीर
अब भी लिखते हो प्रेम कवितायेँ ?
वर्षों बाद मिलने पर पुछा था तुमने
लिखुगा
पर तब तक दूर जा चुके थे तुम 

रविवार, 23 सितंबर 2012

                             एक कहानी                       

                                                 

                       एक मौत


आज जब आफ़िस से घर आई तो अचानक नुकड़ के घर के बहार भीढ़ लगी हुई थी .पूछने पर 

पता चला कि तमन्ना ने आत्म हत्या कर ली थी .मैं 

सन्न रह गई मगर कहीं अंदर से मेरी आत्मा कह रही थी कि यह तो एक दिन होना ही था 

.तमन्ना पिछले काफी दिनों से परेशान सी लगती थी 

.कई बार पूछने की कोशिश भी की ,पर न जाने क्या सोच कर वो बता नहीं पाई और आज कि 

घटना उसी का नतीजा था 

पुलिस आई और उस की लाश को हस्पताल ले गई ...

तम्मन्ना जिसने खुद को झोंक दिया था ......सब कुछ सहा था ....सिर्फ इस लिए कि गोद में 

बेटी थी .

बेटी कुछ बन जाये दो अक्षर पढ ले कही अच्छा घर मिल जायेगा आज सारी तम्मन्ना धरती पर 

पड़ी थी किस काम आई. उस शराबी पति की 

गन्दी गालियाँ ,वो मारना पीटना ,वो बदतमीजी से पेश आना ...फिर भी वो सब झेलती रही थी 

,बेटी कि खातिर ....

फिर आज ऐसा क्या हो गया कि उसने इतना बड़ा कदम उठा लिया ....हाँ पिछले कुछ दिनों से 

वो आफ़िस अच्छे कपडे पहन कर जाने लगी थी 

अपने काम मैं उस को आनंद आता था चाहे उसका वो गन्दा पति कितना कुछ बोलता था उसके 

चरित्र पर भी पर वो इतनी पाक दामन थी कि 

लोग उसके नाम सुनते ही कसम उठाने को तैयार हो जाते थे 

शाम को कम वाली बाई आई तो आँख खुली ,शायद सोचते सोचते सो गई होगी

 "अम्मा" इसी नाम से पुकारती थी वो ....बोली देखा वहां पोलिस आई है कोने वाली के घर मैं 

अच्छा चलो तुम अपना काम खत्म करो मुझे कहीं जाना है ......

कल भी उसका घर वाला पैसा लेने आया था बहुत गालियाँ दी ,मारा भी .....बाई भी कहाँ  चुप 

बैठने वाली थी  .फिर बेटी बोली .....अब मेरा 

दिमाग इस ओर चला ...आ इधर आ क्या हुआ था मैंने बाई को पास बैठा कर पुछा 

होना क्या था बाप झगडा कर के गया ही था कि बेटी ने पैसे मांगे .वो मैंने सामान ले लिया 

उत्तर था उसका .क्यूँ लिया मेरे पैसे थे क्यूँ खर्च किये 

क्यूँ ....क्यूँ ......करते हुए बेटी ने माँ पर हाथ उठा दिया और घर से बहार चली गई 

बचपन से लेकर कर आज बेटी की जवानी तक खुद को मिट्टी कि गुडिया बना कर खुद को जिया 

उसने अपनी हर तम्मना को मार डाला इस बेटी 

की  खातिर और आज वो बेटी ही उसकी मौत का सिला बन गई !

कई दिन बीत गए .समाज के बनाये सब रस्मोरिवाज भी पूरे हो गए !

एक दिन मुझे कुछ याद आया , मैं उठी और उसकी रखी हुई पोटली उठाई और भारी क़दमों से 

उस के घर कि ओर चल पड़ी जहाँ सब कुछ फिर से 

पहले जैसा ही था पर नहीं थी तो वो ...जिसे इस घर से ,बेटी से बहुत प्यार था उसकी बेटी के 

हाथ मैं रख दी ......इन हालत मैं भी उसने अपनी 

औकात से बढ़ कर कुच्छ सामान बेटी कि शादी के किये बना रखा था 

पर अब तो वो लिख गई थी कि

" मेरी मौत कि जिम्मेदार मैं खुद हूँ "

और मैं चुपचाप सोच में डूबी हुई कब घर पहुँच गयी , पता भी न  चला 

थोड़ी ही देर बीती थी कि बेटी मेरे घर आ गई --आप से सच कहूँगी मैंने अपनी माँ का दिल 

दुखाया है इस कि जिम्मेदार मैं हूँ आप पुलिस को बुला 

कर मुझे पकड़ा दो 

"पगली सारी जिंदगी उस ने नौकरी करी खुद को गंदे लोभी  लोगों  से बचा कर तेरे बाप के ताने 

सुने और आज वो सच में टूट गई अच्छा हुआ 

....अब तुम पलना अपने पागल बाप को जिसे नशे मैं किसी का फर्क पता नहीं चलता !

अच्छा कुच्छ दिन आप के पास रह लूं घर का काम कर दूँगी कहते हुए वो अंदर चली गई

क्या इसे पता है कि माँ के जाने कि जिम्मेदार यह खुद है .......नहीं शयद कभी पता भी न 

चलेगा .....क्यूंकि पत्र तो मेरे पास है

पत्र में उस ने लिखा था -दीदी जिस बेटी के लिए मैंने खुद को होम कर दिया वो भी अपने पापा 

के नक्शेकदम पर चलने लग गई है .

अब मैं हार गयी हूँ अगर हो सके तो उस को समाज मैं एक अच्छी जगह देने कि जरूर कोशिश 

करना ....तम्मन्ना "

नीचे तारीख़ डाली ही थी आज से तीन महीने पहले की !!!!!!   नीरजा।।  23 -December 

-2011
    "मेरी  महान  बेटी "

मेरे प्रेम की अनमोल पहचान हो तुम 
 जिन्दगी  के  रास्ते  पे  चलती  रहो .
तु   रूह का   सकून और   प्राण हो 
भगवान     के  मन्दिर  में 
जलती  हुई ज्योति हो  तुम 
अपनी  दुनिया    को  सहेजने  के  लिये 
हमेशा  परेशान 
पर " देवी"  तुम  कभी  न  हो पाओगी
 मेज  कुर्सी    चाय  का   कप 
पैर की   उतरन 
तुम्हारे  खून  में बह रहा है खून मेरा 
उस  के  लिये  अभी  
 बहुत कुछ जानना है 
तुम्हें  रहना है एक
 बहती हुई पवित्र  नदी की  तरह
 जिस के साथ 
 लोगों कि अनाम आस्था जुडी है 
मैं रहूँ न रहूँ कोई रहे न रहे 
तुम रहोगी , तुम जमीन हो  
तुम से ही उपजती है
 आने वाले जीवन की
 खुदा की अनमोल देन 
 अनजान लोगों को अपना बना कर
 खुद में समां लेना
 सब को  प्रेम और बाँटना
 सारी दुनिया में  
अनमोल लोगों के साथ ही 
 अनाम  लोगों   के  साथ् आपने   अगम 
रास्ते  पर  चलते  जाना
 पवित्र  ग्रन्थो की  आत्मा  हो  तुम 
मेरी  जान  जिन्दगी  नहीं लगती थी  तेरे  बिना 
पर मेरे माँ होने कि पहचान हो तुम 
                       द्वारा नीरजा 
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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

दर्द की दास्ताँ


दर्द की दास्ताँ


यहाँ वहाँ सब एक हैं
 खून के रिश्ते निशाँ
 कहीं हूँ माँ बेटी कहीं
 नन्हे कन्धों पे बोझ ज्यादा
 यहाँ वहाँ ढोती रही
 ढूँढती रही कहीं माँ 
बेटी बन पीड़ा सही
 पुकारती सदा रही
 यहाँ वहाँ यहाँ वहाँ 

कहीं पे बोझ दिल पे  है 
 उम्मीद कि हलकी सी किरन
 आज मैं हूँ कहाँ 
पूछती हूँ लौट कर 
 कहाँ आधार है मेरा
 कहाँ है घर ?कहाँ मकान 
 ढूंढती रही हूँ माँ
 यहाँ वहाँ यहाँ वहाँ 

कहीं मैं बन गयी थी माँ
 दर्द की पीड़ा सही
 बच्चा कहीं भीतर छुपा
 ओढ़ ली है मैंने माँ
 सही हैं सारी दूरियां
 नहीं मिटा सकी निशान 
पत्थर  के पैने घाट पे
 रस्सियों के निशान
 ढूँढती सदा रही सदा 
 यहाँ वहाँ यहाँ वहाँ ...........................नीरजा



रविवार, 13 मई 2012


सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं ......अहमद फ़राज़ 


 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते है

सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से 
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं 

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी 
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़ 
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं 

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है 
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं 

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें 
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं 

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं 

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी 
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं 

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है 
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं 

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं 
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं 

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी 
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं 

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में 
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं 

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में 
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं 

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं 
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं 

वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं 
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं 

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का 
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं 

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त 
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं 

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं 
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं 

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे 
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही 
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं 

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ 
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं 

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं 

जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं 

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं 

तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं 

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे मुझे जल के देखते हैं 

यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं 

न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं 

यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं 

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं
अहमद फ़राज़ ....


कुछ शेर !!! अहमद फ़राज़ ...


इससे पहले की बेवफा हो जाएँ...

क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जायें...


तू भी हीरे से बन गया पत्थर...


हम भी कल क्या से क्या हो जाएँ...

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है...


की फूल अपने कबायें क़तर के देखते हैं...


रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ करती हैं...


चले तो उसको जमाने ठहर के देखते हैं...



अहमद फ़राज़...